भिंडी की फली के साथ-साथ इसके जड़ एवं तनें भी आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इसकी मांग गुड़ एवं शक्कर को साफ़ करने के कार्य के लिए होती है। इसके साथ ही कुछ देशों में भिंडी के बीज का पाउडर बनाकर इसका प्रयोग कॉफ़ी के रूप में भी किया जाता है। इस प्रकार बहुपयोगी होने की वजह से भिंडी की भारतीय बाजार के साथ-साथ विश्व बाजार में भी काफी मांग है, एवं लागत के हिसाब से इसका बेहतर मूल्य भी प्राप्त होता है। इस प्रकार यह आर्थिक दृष्टि से हमारे लिए महत्वपूर्ण सब्जी है।
भिंडी, पोषक तत्वों से भरपूर सब्जी है, जिसमें खनिज (Ca, Mg, P,K, Zn), विटामिन (A, B1, B2), एंटीओक्सिडेंट, एवं फाइबर प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। विशेषकर यह पेट के लिए भी बहुत अच्छा माना जाता है। दो-चार ताज़ी भिंडी का प्रतिदिन सेवन करने से पेट बिल्कुल साफ़ रहता है।
भिंडी की खेती के लिए गरम जलवायु सबसे उपयुक्त होती है। इसकी खेती के लिए औसत 25°C से 30°C के तापमान को उपयुक्त माना जाता है। जब तापमान 18° से कम हो जाता है, तो इसके बीज का जमाव रुक जाता है, इसप्रकार ठंडे मौसम में भिंडी की फसल की वृद्धि में रुकावट आ सकती है एवं उत्पादन कम हो सकता है। अधिक नमी इसके लिए अनुकूल होती है, वहीँ अत्यधिक जलभराव से इसकी जड़ें सड़ सकती हैं, इसलिए जल निकासी की व्यवस्था महत्वपूर्ण है।
वैसे तो भिंडी के लिए उपयुक्त मौसम ग्रीष्मकाल है, लेकिन इसे ग्रीष्म एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जाता है। ग्रीष्मकाल में इसकी बुआई का सही समय फरवरी-मार्च है, वहीँ वर्षाकाल में इसकी बुआई का समय जून-जुलाई का माह है। उत्तर भारत में मध्य भारत के मैदान वाले इलाके में वर्ष में 2 बार फसल की बुआई की जाती है। इन क्षेत्रों में एक बुआई वर्षा ऋतु यानी जून-जुलाई में की जाती है, एवं दूसरी बार ग्रीष्म में इसकी बुआई फरवरी-मार्च में की जाती है। उत्तर भारत में अगेती बुआई का काफी प्रचलन एवं महत्त्व है। परन्तु बीज वाली फसल की बुआई वर्षा ऋतु (10 से 15 जुलाई) में ज्यादा उपयुक्त होती है। क्योंकि इसके पहले बुआई करने से बीज के पकने के समय वर्षा होने लगती है एवं फसल को नुकसान पहुँचता है।
भिंडी को विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है, परन्तु इसके लिए सबसे उपयुक्त ह्यूमस वाली दोमट या बलुई दोमट मिट्टी माना जाता है। वहीँ मिट्टी का pH 6 से 7 के बीच होनी चाहिए। भिंडी की खेती के लिए भूमि के चयन करते समय यह ध्यान देना चाहिए, कि मिट्टी जलजमाव वाला ना हो, यानी उचित जल निकासी की व्यवस्था हो, ताकि पानी रुकने न पाए।
उपयुक्त भूमि के चुनाव के बाद आती है मिट्टी की तैयारी की बारी, तो बता दें कि भिंडी के लिए मिट्टी की तैयारी की कोई विशेष प्रक्रिया नहीं होती है। आपको सामान्य तरीके से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना है। दो-तीन जुताई के बाद मिट्टी बीज बुआई लायक हो जायेगी, जिसके बाद आपको पाटा लगा कर समतल कर लेना है।
कृषि विज्ञान के विकास ने कृषि को उन्नत किस्मों का तोहफा दिया है, और ये सिलसिला जारी है। जिससे फसलों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि के साथ-साथ फसल की पैदावार में भी बढ़ोतरी की है। भिंडी की भी कई उन्नत एवं संकर किस्में आज मार्केट में उपलब्ध है, आइये जानते हैं उन किस्मों के बारे में-
काशी प्रगति (वी.आर.ओ.-6)- यह बीज पित्त शिरा मोजैक एवं पत्ती के शुरूआती विकास के समय लगने वाले पत्ती मोड़ विषाणु का प्रतिरोधी है। बुआई के 38 से 40 दिनों के बाद फूल चौथे से छठे गाँठ पर आ जाता है। ग्रीष्म काल में इसकी प्रति हेक्टेयर उपज 135 कुंतल एवं वर्षा ऋतु में 180 कुंतल होती है।
काशी विभूति (वी.आर.ओ.-5)- यह भिंडी की बेहतर पैदावार वाली एक बौनी प्रजाति है, जिसकी बढ़त केवल 60 से 70 सेमी तक होती है। इसमें चौथे गांठ पर फूल 40 दिनों में आ जाते हैं। वर्षाकाल में बोई गयी फसल की प्रति हेक्टेयर पैदावार 150 कुंतल एवं गर्मी के मौसम में 120 कुंतल होती है। यह पित्त शिरा मोजैक एवं इनेसन विषाणु रोग का प्रतिरोधी किस्म है।
काशी सातधारी (आई.आई.वी.आर.-10)- यह बीज भी पित्त शिरा मोजैक एवं पत्ती के शुरूआती विकास के समय लगने वाले पत्ती मोड़ विषाणु का प्रतिरोधी है। बुआई के 42 दिन बाद इसके पौधे में फूल आजाते हैं। वर्षा ऋतु के लिए यह बेस्ट सीड है, जिसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 140 कुंतल तक जा सकती है।
काशी क्रांति- यह पित्त शिरा मौजेक विषाणु एवं ओ.एल.सी.वी. प्रतिरोधी है। इस बीज की पैदावार 125 से 140 कुंतल प्रति हेक्टेयर होती है।
इसके साथ ही पूसा सावनी, परभनी क्रांति, अर्का अनामिका, पंजाब पद्मिनी, अर्का अभय, वर्षा उपहार जैसे भिंडी की कई उन्नत किस्में उपलब्ध है।
सारिका, काशी भैरव, सिंजेंटा-152, महिको 8888, यू.एस.-7109, एस-5, जे.के. हरिता आदि संकर किस्में हैं, जो पित्त शिरा विषाणु रोग प्रतिरोधी संकर किस्में हैं।
यदि भिंडी की खेती को अधिक उत्पादक बनाना है, तो इसमें गोबर की खाद एवं उर्वरक का उपयुक्त मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। खाद के प्रयोग के पहले किसानों को सलाह है कि वे अपने नजदीकी साइल टेस्टिंग सेंटर में मिट्टी की उर्वरता की जांच करा लें, जिसके बाद आप अमुक पोषक तत्व की कमी के अनुसार उपयुक्त उर्वरक का प्रयोग कर पाएंगे। आसपास मिट्टी जाँच की सुविधा उपलब्ध ना होने की स्थिति में किसान साधारण मिट्टी में प्रति हेक्टेयर की दर से 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद, 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस, एवं 50 किलो ग्राम पोटाश का प्रयोग करना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि मात्रा के साथ-साथ किसान भाइयों को उपयुक्त तरीके से उर्वरक के प्रयोग की भी जानकारी होनी आवश्यक है। तो आइये जानते हैं कब एवं कैसे करें खाद/उर्वरक का प्रयोग-
बीज की उपयुक्त मात्रा का ज्ञान होना अति-आवश्यक है। भिंडी के बीज की मात्रा बुआई के समय एवं कितनी दूरी पर पौधे को बोना है इसपर निर्भर करता है। वर्षा ऋतु यानी खरीफ के मौसम में बुआई के लिए प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किलोग्राम एवं ग्रीष्मकाल में 12 से 15 किलोग्राम बीज की जरुरत होती है। जबकि फरवरी के प्रथम सप्ताह यानी अगेती बुआई के लिए 15 से 20 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
भिंडी की बीज की बुआई खेतों में क्यारियां या मेड़ो को बनाकर की जाती है। जहाँ जल निकास उपयुक्त नहीं हो वहां मेड़ बनाकर उसपर बुआई की जाती है। ग्रीष्मकाल में अगेती फसल के लिए बुआई से पूर्व बीज को 24 घंटे तक पानी में भिंगोकर रखनी चाहिए, उसके बाद कुछ देर तक छाँव में सुखजाने के बाद बुआई करनी चाहिए। इसके साथ ही बुआई के पूर्व कैप्टाफ या थिरम नामक कवकनाशी दवा की 2.5 से 3.0 ग्राम मात्रा को प्रतिकिलो ग्राम बीज की मात्रा के साथ मिलाकर बीज का उपचार कर लेना चाहिए। बीज की बुआई 2.5 से 3.0 सेमी की गहराई पर की जाती है।
यदि बीज के अंकुरण के समय मिट्टी में उपयुक्त नमी ना हो, तो एक हल्की सिचाई कर देनी चाहिए ताकि नमी बरकरार रह सके एवं बीज का सवस्थ अंकुरण संभव हो सके। बाद में, मिट्टी के प्रकार एवं मौसम के आधार पर सिंचाई करनी चाहिए। मार्च महीने में सिंचाई 10 से 12 दिन, अप्रैल महीने से 7 से 8 दिन, एवं मई-जून में 4 से 5 दिन के अन्तराल में करनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि ये बतायी गयी मात्रा मौसम के मिजाज एवं मिट्टी में पानी के स्तर पर निर्भर करती है। भिंडी की खेती के लिए आप ड्रिप इरिगेशन विधि को भी अपना सकते हैं। इससे पानी की बचत होती है एवं पौधों को पर्याप्त नमी भी मिलती है।
भिंडी की फसल लगने के 25 से 30 दिनों के बाद अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो फसल को स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त करने में रूकावट डालते हैं। स्वस्थ फसल एवं बेहतर उत्पादन प्राप्त करने के लिए इनका समय रहते नियंत्रण करना आवश्यक है। खरपतवार के नियंत्रण के लिए प्रति ड्युअल (मेटा लेक्लोर -50 ई.सी.) की 2 लीटर मात्रा या स्टाम्प (पेंडीमेथलीन 30 ई.सी.) की 3.3 लीटर दवा की मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 48 के अन्दर छिडकाव करना चाहिए। यह खरपतवार नियंत्रण का एक प्रभावी उपाय है।
भिंडी में लगने वाले प्रमुख कीट एवं उनके नियंत्रण के उपाय नीचे बताये जा रहे हैं-
फुदका (जैसिड)- यह ग्रीष्मकाल में बोई गयी फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाता है। ये पत्ती के निचली सतह से रस चूसते हैं एवं एक जहरीला पदार्थ अपने लार के साथ पत्ती के अंदर इंजेक्ट करते हैं, जिसके कारण पत्ती किनारे से सिकुड़ने लगती है, एवं इसका रंग पीला पड़ जाता है।
इसके नियंत्रण के लिए बुआई के वक़्त इमिडाक्लोप्रिड 48 एफएस की 5 से 9 मिली/प्रति ग्राम बीज या इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस की 5 से 10 ग्राम/प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज का उपचार करना चाहिए।
सफ़ेद मक्खी- यह सफ़ेद रंग का छोटे आकर का कीट होता है, जिसका पूरा शरीर मोम से ढका होता है। ये पत्तियों का रस-चूसते हैं एवं विषाणु रोग से पौधे को संक्रमित करते हैं।
इसके नियंत्रण के लिए फुदका के नियंत्रण के लिए बतायी गयी प्रक्रिया से बुआई के पूर्व बीज का उपचार करें।
तना एवं फल छेदक कीट- वर्षाकाल वाली फसल को ये ज्यादा प्रभावित करते हैं। ये तना के अगले भाग एवं फली में छेद कर उसे अपना आहार बनाते हैं। इससे तना मुरझा जाते हैं एवं फली खाने लायक नहीं रह जाता है।
इससे बचाव के लिए गर्मी के मौसम में मिट्टी की गहरी जुताई करनी चाहिए। जिस तने या फली पर इस कीट का आक्रमण हुआ हो, उसे पूरी तरह से तोड़कर हटा देना चाहिए। इससे बचाव के लिए जैव कीटनाशक बैसिलस थुरिनजिनेसिस (बी.टी.) 0.5 ग्राम की मात्रा/हेक्टेयर की दर से 1 हफ्ते के अंतराल पर 2 से 3 बार छिडकाव करना चाहिए।
पीत शिरा मोजैक- यह एक विषाणुजनित रोग है, जिसके फैलने से पौधे का विकास रुक जाता है एवं पत्तियां एवं तने पीले पड़कर सूखने लगते हैं।
इसके नियंत्रण के लिए मेटासिस्टोक या नुआक्रान कीटनाशक की 1.5 मिली लीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के गैप में 3 बार छिडकाव करना चाहिए।
काला धब्बा- यह रोग सितंबर के अंतिम सप्ताह से फैलना शुरू होता है, एवं कम तापमान एवं अधिक आर्द्रता होने पर तेजी से बढ़ता जाता है।
इसके नियंत्रण के लिए 1 ग्राम टापसिन एम या 0.5 ग्राम बेयकुर की मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर धब्बे दिखाई देने पर छिडकाव करें। इसका छिडकाव 8 से 10 दिन के अंतराल पर 2 से 3 बार करनी चाहिए।
सूखा व जड़ गलन रोग- यह मिट्टी के फफूंद से फैलने वाला रोग है। इसके संक्रमण से पौधे पीले पड़ जाते हैं एवं बाद में सूख जाते हैं।
फसल चक्र को अपनाकर एवं बीजोपचार कर इसपर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है।
चूर्णी फफूंद रोग- इस रोग के फैलने पर पत्तियों पर गहरे भूरे रंग का चूर्ण बन जाता है। जिससे बाद में पत्तियां सिकुड़कर मुरझा जाती है।
इसके नियंत्रण के लिए माइक्लो ब्लूटानिल 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
भिंडी का फल जब हरा, ताजगी से भरा एवं आकार में सही होता है, तब उसे तोड़ लेना चाहिए। बीज के प्रकार के हिसाब से भिंडी के फल के परिपक्व होने के समय में अंतर हो सकता है। सामान्यत: भिंडी की फसल 50-60 दिनों में तैयार हो जाती है। नियमित रूप से फल तोड़ने से नए फूल एवं फल आने की प्रक्रिया बनी रहती है। फलों को हाथ से हलके से तोड़ा जाना चाहिए, ताकि पौधों को कोई नुकसान न हो।
भिंडी की अच्छी फसल को अच्छी कीमत पर बेचना महत्वपूर्ण है। उत्पादन के बाद फसल को ताजे एवं साफ तरीके से बाजार में भेजने के लिए पैकिंग और ट्रांसपोर्टेशन की अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए। भिंडी की बाजार में मांग हमेशा बनी रहती है, खासकर शहरी क्षेत्रों में।
हमनें इस आर्टिकल में भिंडी की खेती करने की पूरी प्रक्रिया को बताया है। हमारा उदेश्य किसानों को भिंडी की वैज्ञानिक एवं उन्नत खेती की तरीके की जानकारी देना है, ताकि वे घरेलू खपत के लिए उत्पादन करने के साथ-साथ भिंडी के निर्यात में भी अपनी हिस्सेदारी दे सकें। भिंडी की वैज्ञानिक खेती को अपनाकर किसान न केवल अपनी फसल की गुणवत्ता बढ़ा सकते हैं, बल्कि उत्पादन में भी वृद्धि कर सकते हैं। उचित जलवायु, उर्वरक, सिंचाई, कीट नियंत्रण, और सही मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के साथ भिंडी की खेती एक लाभकारी व्यवसाय साबित हो सकता है। अगर इन सभी उपायों को सही तरीके से अपनाया जाए, तो यह फसल किसानों के लिए एक सुरक्षित एवं टिकाऊ आय का स्रोत बन सकती है।