मसूर एक नकदी फसल है, जिससे किसानों को अच्छी आमदनी प्राप्त होती है। यह विशेषकर शाकाहारी लोगों के लिए पोषण का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसके साथ ही मसूर वायुमंडलीय नाइट्रोजन को मृदा में स्थिर करने वाली फसल है, जिससे भूमि की उर्वरता में वृद्धि होती है।
मसूर ठंढे मौसम के अनुकूल एक दलहनी फसल है। भारत में यह एक वर्षा आधारित फसल के रूप उगाई जाने वाली दलहनी फसल है। मसूर की खेती के लिए जो आइडियल तापमान माने जाते हैं, वो 20 से 25°C सेल्सियस है। अधिक वर्षा या अधिक नमी वाली जलवायु इसके लिए हानिकारक होती है, अतः शुष्क एवं ठंडी जलवायु सबसे उपयुक्त है। मसूर के फसल का स्वस्थ विकास जहाँ बुआई के समय कम तापमान की मांग करता है, वहीँ फसल के परिपक्व होने के लिए सामान्य गर्मी की मांग करता है।
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2024-25 के दौरान मसूर उत्पादन के अग्रिम अनुमान के आंकड़े जारी किये गए हैं, जिसके अनुसार मसूर का उत्पादन 18.17 लाख मीट्रिक टन अनुमानित है। यह अनुमान विश्व में मसूर उत्पादन में प्रथम स्थान प्राप्त करने की ओर भारत का बढ़ता कदम है। वहीँ मसूर उत्पादक प्रमुख राज्यों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, एवं झारखंड के नाम आते हैं।
मसूर की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है। वहीँ मिट्टी का pH मान 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए। मसूर की फसल की बुआई से पूर्व ये ध्यान रखना चाहिए कि मिट्टी में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था हो।
मसूर के बीज की बुआई के पूर्व मिट्टी को उचित तरीके से तैयार कर लेना चाहिए। मिट्टी की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 बार देशी हल या रोटावेटर से जुताई करना आवश्यक है ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए ताकि बीज के विकास के उपयुक्त पानी एवं पोषक तत्व मिल सके। जुताई के बाद मिट्टी को समतल एवं भुरभुरी बना लें ताकि बीज का स्वस्थ विकास हो एवं यह अच्छे से पोषक तत्व ग्रहण कर सकें।
कृषि वैज्ञानिकों नें नए-नए किस्मों का विकास कर हमेशा से कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में अपना अहम् योगदान दिया है। मसूर के उन्नत बीजों के विकास में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है। आइये जानते हैं उन प्रमुख किस्मों के बारे में जिसे वर्तमान में भारतीय किसान प्रयोग में लाकर बेहतर उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं:
ये किस्में रोगरोधी, अधिक उत्पादन देने वाली होने के साथ-साथ जलवायु की परिस्थितियों के प्रति सहनशील होती हैं।
बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि आप इसकी बुआई मौसमी यानी समय पर कर रहे हैं या फिर अगेती या पिछेती यानी मसूर के लिए उपयुक्त सामान्य मौसम के पहले या बाद में कर रहे हैं। समय से बुआई कर रहे हैं तो आपको प्रति हेक्टेयर 30 से 40 किलोग्राम मसूर के बीच की आवश्यकता होगी, वहीँ वहीँ पिछेती या अगेती/उत्तेरा बुआई के लिए प्रति हेक्टेयर 40-से 50 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होगी। इसी आधार पर अपने छोटे खेतों के लिए आवश्यक बीजों का भी आप हिसाब लगा सकते हैं।
बीज के स्वस्थ अनुकुरण एवं किसी प्रकार के कीटों से बचाव के लिए बुआई से पूर्व बीजों का उपचार करना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। 10 किलोग्राम मसूर के बीज के एक पैकेट को 200 ग्राम राजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिए। ध्यान रहे वैसे खेतों में जहाँ पहले कभी भी मसूर की बुआई न की गयी हो, उसमें पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग किया जाना बहुत जरुरी है।
इसके साथ ही किसान को मसूर के बीजों की बुवाई से पूर्व फफूंदनाशक (थाइरम या कैप्टान) 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज से भी उपचारित कर लेना चाहिए। इससे बीज एवं फसल अपना स्वस्थ विकास कर पाते हैं, एवं किसी भी फफूंद वाले रोगों से बचे रहते हैं।
फसल का सही विकास उसको मिलने वाले पोषक तत्वों पर निर्भर करता है, इसके लिए जरुरी है मिट्टी की जाँच (Soil Testing) कर उर्वरक के माध्यम से जरुरी पोषक तत्वों की कमी को पूरा किया जाए। मसूर की फसल के मामले में उर्वरक का प्रयोग फसल की बुआई के समय पर भी निर्भर करता है। अगर आप मौसम के अनुसार या समय पर फसल की बुआई करने जा रहे हैं, तो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आपको 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश, एवं 20 किलोग्राम गंधक का प्रयोग करना चाहिए।
वहीँ यदि उतेरा विधि से बुआई यानी समय से पूर्व बुआई कर रहे हैं, तो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से धान की कटाई के बाद 20 किलोग्राम नाइट्रोजन का टॉपड्रेसिंग करना चाहिए। तथा 30 किलोग्राम फास्फोरस का फूल आने तक या फल्लियाँ बनते समय छिड़काव करना चाहिए।
मसूर की फसल के लिए सिंचाई फूल आने के पूर्व करनी चाहिए। वहीँ धान की खेतों में बोई जाने वाली फसल में यदि वर्षा ना हुयी हो तो फली बनने के पूर्व एक बार सिंचाई करनी चाहिए।
किसानों का काम फसल की बुआई से लेकर कटाई तक जारी रहता है। इसमें खरपतवार का नियंत्रण सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। यह समय पर इस पर ध्यान ना दिया जाए तो मसूर के उत्पादन पर इसका बुरा सर पड़ सकता है। खरपरवार के नियंत्रण के लिए बुआई के 20 से 25 दिनों के बाद एक बार पूरे खेत की नराई-गुड़ाई करनी आवश्यक है। इसके साथ ही प्रति हेक्टेयर के हिसाब से एलाक्लोर का 3 से 4 लीटर छिडकाव कर देना चाहिए। या फिर बुआई के बाद पेंडीमिथलीन का 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव कर सकते हैं।
अगर बीज शोधित कर अगर बुआई की जाए तो मसूर की फसलों में रोग लगने की बहुत कम संभावना होती है। परन्तु फसल के बुआई से परिपक्व होने एवं कटाई तक नजर बनाए रखने की जरुरत है। यदि किसी प्रकार के रोग का प्रारंभिक लक्षण दिखे तो तुरंत रोगोपचार किये जाने की आवश्यकता है। मसूर की फसल में लगने वाले सामान्य रोग निम्न हैं:
उकठा एवं गेरुई मसूर में लगने वाली प्रमुख बीमारी है, इसलिए किसानों को चाहिए कि इस रोग के प्रतिरोधी प्रजातियों के बीजों का इस्तेमाल करें। वहीँ बीज मिट्टी से जनित रोगों से मसूर की फसलों को बचाने के लिए किसान 5 ग्राम ट्राईकोडर्मा पाउडर प्रति किलोग्राम मसूर के बीजों के उपचार के लिए प्रयोग कर सकते हैं। या फिर इसकी अनुपलब्धता में थीरम या कार्बेंडाजिम का प्रयोग प्रति किलोग्राम 3 ग्राम मात्रा का प्रयोग बीजों के उपचार के लिए कर सकते हैं।
ग्रीवा गलन एवं मूल विगलन जैसे मृदा जनित रोगों के लिए भूमि को उपचारित करना उतना ही आवश्यक है। इसके लिए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कम्पोस्ट या गोबर में 2.5 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा पाउडर को मिश्रित कर मिट्टी में मिलाकर मृदा का उपचार कर सकते हैं।
इसके साथ ही मसूर की फसलों पर कीटें भी नुकसान पहुंचाती है। इसमें प्रमुख रूप से माहू कीट एवं फली वेधक कीट का प्रकोप होता है। माहू कीट पत्तियों एवं पौधों के अंत वाले कोमल भागों से रस चूसकर क्षति पहुंचाता है। इसके उपचार के लिए मिथाइल-ओ-डिमेटान या मोनोक्रोटाफास का पानी पानी में घोलकर छिडकाव किया जाना चाहिए। वहीँ फलीवेधक फलियों में छेदकर दानों को नुकसान पहुंचा देते हैं। फलीवेधक के उपचार के लिए वैसिलस थुरिंजेसिस या फेनवेलरेट का छिडकाव किया जाना चाहिए।
मसूर के फसल के पूर्णरूप से परिपक्व होने पर ही इसकी कटाई करनी चाहिए। पकने पर इसकी 90% फलियाँ सूख जाया करती है। मड़ाई के बाद फसल के भण्डारण के दौरान इसमें कीट ना लग जाए, इसका भी ध्यान रखना जरुरी है। भण्डारण के दौरान किसी प्रकार के कीटों से बचाव के लिए अल्युमिनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति मैट्रिक टन की दर से डाल देनी चाहिए।
ट्रैक्टरकारवां की ओर से
हमनें इस आर्टिकल में मसूर की खेती से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी को समेटने का प्रयास किया है। हमारा उदेश्य किसानों को जागरूक कर कृषि की उत्पादकता बढ़ाने में अपना सहयोग देना है, ताकि किसानों की आर्थिक उन्नति के साथ-साथ ये देश तरक्की की राह पर आगे बढ़ सके। मसूर की खेती एक लाभकारी एवं टिकाऊ कृषि विकल्प है। उपयुक्त बताये गए तकनीक, समय पर बुवाई एवं कीट-रोग प्रबंधन अपनाकर किसान इससे अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।