भारत में करेले की खेती प्रमुख रूप से खरीफ एवं रबी दोनों मौसम में की जाती है। ग्रीष्म ऋतु में 15 फरवरी से 15 मार्च तक की जाती है, वहीँ वर्षा ऋतु में 15 जून से 15 जुलाई तक इसकी बुआई की जाती है। लेकिन वर्षभर मांग होने की वजह से इसकी समय से पहले या समय के बाद भी खेती की जाती है। यानी कहें तो भारत में इसकी खेती वर्ष भर की जाती है।
करेले की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। करेले के बीज के स्वस्थ अंकुरण के लिए 30 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान एवं पौधे के अनुकूल विकास के लिए 32 से 38 डिग्री का तापमान उपयुक्त माना जाता है।
करेले की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी कौन सी होती है?
बलुई दोमट एवं ह्यूमस वाली चिकनी मिट्टी करेले के लिए उपयुक्त मानी जाती है, क्योंकि इसकी जल धारण क्षमता अधिक होने के साथ पीएच वैल्यू 6 से 7 के बीच होता है। करेले की खेती के लिए वैसी भूमि का चुनाव करना चाहिए, जहाँ जलनिकासी की उपयुक्त व्यवस्था हो।
करेले की खेती के लिए मिट्टी की तैयारी करने के लिए कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है, बल्कि इसके लिए पारंपरिक हल या कल्टीवेटर के द्वारा 3 से 4 बार अच्छी तरह से जुताई करनी होती है। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं मिट्टी के तल को एक समान कर लेना चाहिए, जिससे सिंचाई के दौरान पानी की समान मात्रा मिट्टी तक जा सके।
फसल के सही किस्म का चुनाव करना बहुत ही अहम् कार्य माना जाता है। क्योंकि यह आपके उपज को प्रभावित करता है। हो सकता है पूर्व में बीज के जिस किस्म का आप उपयोग कर रहे थे, उससे अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्म मार्केट में उपलब्ध हो। इसलिए आपको बीज के चुनाव करने में थोड़ा जागरूक एवं अपडेटेड रहने की जरुरत है। अगर कोई नई किस्म विकसित की गयी हो, तो इसकी जानकारी आप अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) से प्राप्त कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में आयोजित पूसा कृषि विज्ञान मेले में करेले की विकसित 3 संकर किस्मों को विकसित किये जाने की जानकारी दी गयी है। नीचे करेले की कुछ प्रमुख उन्नत किस्मों की जानकारी दी जा रही है, जिसे रोग-प्रतिरोधी होने के साथ-साथ बेहतर उपज वाला माना जाता है।
यह किस्म खरीफ एवं जायद दोनों मौसमों में बोई जा सकती है। इसकी बुआई से लेकर तुड़ाई तक का समय लगभग 55 दिनों का होता है। इसके फल हरे, थोड़े मोटे होते हैं, जिसकी लम्बाई 18 सेमी तक होती है।
यह खरीफ मौसम में बोई जाने वाली प्रमुख किस्म है। इसके फल हरे, पतले एवं मध्यम आकार के होते हैं, जिसका वजन 115 ग्राम तक होता है।
यह उनके लिए बहुत ही उपयुक्त किस्म है, जो करेले की कड़वाहट से परहेज करते हैं, क्योंकि यह बहुत ही कम कड़वी फल देता है। इसके साथ ही इस किस्म के फल में बीज की भी बहुत कम मात्रा होती है।
यह विशेषकर खरीफ मौसम में बोई जाने वाली किस्म है, इसके फल हल्के हरे एवं काफी लंबाई वाले होते हैं। यह किस्म लम्बे समय तक उपज देने की क्षमता रखता है।
करेले की खेती के लिए नाइट्रोज, फास्फोरस एवं पोटाश उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। जहाँ तक इसकी मात्रा कि बात है, तो आप एक हेक्टेयर में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस, एवं 20 से 30 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग करें। ध्यान रहे एक ही बारी में सभी को नहीं डालनी है, बल्कि नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा, फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत यानी मिट्टी की तैयारी के समय डालनी चाहिए। बचे हुए नाइट्रोज को बीज की बुआई से 30 से 45 दिनों के बाद फसल के जड़ के पास ड्रेसिंग करनी चाहिए।
जैसे बीज का चुनाव अहम् होता है, उसी तरह बीज की सहित मात्रा का निर्धारण भी कृषि का एक महत्वपूर्ण भाग है। बीज की कम या अधिक मात्रा, दोनों स्थितियों में आपके उपज पर प्रभाव डाल सकता है। एक हेक्टेयर में करेले की सब्जी उगाने के लिए 5 से 6 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
करेले की बीज की बुआई मिट्टी के मेड़ों पर करना उपयुक्त होता है। कतार से कतार की दूरी 1।5 से 2।5 मीटर रखनी चाहिए, वहीँ पौधे से पौधे की दूरी 45 से 60 सेमी रखनी चाहिए।
सिंचाई की मात्रा मिट्टी के प्रकार एवं जलवायु पर निर्भर करती है। सामान्यतः खरीफ ऋतु में खेती की सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु यदि वर्षा सामान्य ना हुयी हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। वहीँ गर्मी के मौसम में चूँकि तापमान अधिक रहती है, जिससे मिट्टी की नमी सूख जाती है। इसलिए इस मौसम में आपको 4 से 5 दिन के अन्तराल में सिचाई करते रहने की जरुरत होती है।
वर्षा ऋतु हो या गर्मी, अक्सर सिंचाई के बाद खेतों में कई तरह के खरपतवार उग आते हैं, जिसे समय रहते निकाल देना आवश्यक है। नहीं तो ये पौधे को मिलने वाली नमी को खुद ले लेते हैं। पौधे के स्वस्थ एवं बेहतर विकास के लिए पूरे फसल काल में कुल 2 से 3 बार गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए।
फसल की बुआई से तुड़ाई तक किसानों को फसल की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होती है। स्वाद में कड़वी इस सब्जी को भी अपना आहार बनाने वाली बहुत सी कीटें हैं, जिनसे समय रहते पौधे का बचाव करना आवश्यक है। आइये जानते हैं, वे कौन-कौन सी कीटें हैं, जो करेले की फसल को नुकसान पहुँचाने का काम करते हैं।
यह चमकीला नारंगी रंग का कीट होता है, जिसके सिर, वक्ष, एवं उदर का निचला भाग काला होता है। इसकी इल्ली का निवास स्थान मिट्टी है, जो वयस्क होने पर पौधे की पत्तियों को नुकसान पहुंचाती है। इनकी सक्रियता जनवरी से मार्च महीने में अधिक रहती है। अगर अधिक मात्रा में ये फसल पर आक्रमण कर दें, तो पूरे फसल को पत्तीविहीन कर सकते हैं।
इसके नियंत्रण के लिए आपको सुबह ओस पड़ने के वक्त पौधे की पत्तियों पर राख का छिडकाव करना चाहिए। इससे यह पौधे की पत्तियों पर नहीं बैठते हैं, जिससे पत्तियां नुकसान से बची रहती है। जैविक तरीके से भी इसपर नियंत्रण पाया जा सकता है, इसके लिए आपको आजादीरेक्टिन 300 पीपीएम @5-10 मिली/लीटर या आजादीरेक्टिन 5 प्रतिशत @0.5 मिली/लीटर की दर से 2 से 3 बार छिड़काव करनी चाहिए। इस कीट का अगर अधिक प्रकोप हो जाए तो आप त्वरित परिणाम के लिए कीटनाशक डाईक्लोरोवास या ट्राईक्लोफेरान का भी छिडकाव कर सकते हैं।
इसकी प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है। इसके सिर पर काले एवं सफ़ेद धब्बे पाए जाते हैं। यह मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अंडा देना पसंद करती है, जिसके बाद अंडे से सूडी निकलकर फल के अन्दर का भाग खा जाती है।
इसके नियंत्रण के लिए गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। या फिर पौधे के आसपास खुदाई करने पर मिट्टी के अन्दर फलमक्खी के प्यूमा तक धूप का प्रवेश होने पर यह नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही त्वरित परिणाम प्राप्त करने के लिए आप डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान के घोल का उपयोग कर सकते हैं।
यदि पौधे की पत्तियों एवं तनों की सतह पर सफ़ेद या धुंधले धूसर दिखाई देने लगे तो समझिये यह चूर्णिल फफूंद रोग है। इस रोग से ग्रसित होने पर फलों का आकार छोटा हो जाता है।
इसके नियंत्रण का सबसे आसान तरीका है, इस रोग से ग्रसित हुए सभी पौधे को जड़ से उखाड़ कर इकठ्ठा का उसे जला दें। या फिर ट्राईडीफॉर्म या माइक्लोब्लूटानिल जैसे फफूंदनाशक का पानी के साथ घोल बनाकर छिडकाव कर सकते हैं।
इस रोग का प्रकोप वर्षा एवं गर्मी, दोनों समय बोई जाने वाली फसलों पर हो सकता है। इस रोग के लक्षण में पत्तियों के शिराओ में कोणीय धब्बे का बनना है।
इस रोग से बचने के लिए बुआई से पूर्व मेटलएक्सल कवकनाशी से बीज का उपचार करना चाहिए। या मैंकोजेब का पानी के साथ घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए।
इस रोग रोग से प्रभावित होने पर करेले के फल पर कवक की मात्रा में वृद्धि हो जाती है, जिससे फल सड़ने लगता है।
इसके लिए खेत में उचित जल-निकास की व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए की फलों का स्पर्श भूमि से ना होने पाए।
इस रोग के ग्रसित होने पर पत्तियां चितकबरा हो जाती है एवं सिकुड़ जाती है। इसके साथ ही पत्तियां छोटी हो जाती है। इसके संक्रमण होने से पौधे का विकास रुक जाता है।
इसके नियंत्रण के लिए कोई प्रभावी उपाय तो नहीं है, लेकिन इससे ग्रसित पौधे को नष्ट कर इस रोग पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। या फिर इमिडाइक्लोरोप्रिड की उपयुक्त मात्रा का पानी के साथ घोल बनाकर 10 दिन के अंतराल में छिडकाव कर सकते हैं।
जब फलों का रंग गहरे हरे से हल्के हरे रंग का हो जाए, तो समझिये कि अब ये परिपक्व हो गया है और इसकी तुड़ाई की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि करेले की फल की तुड़ाई एक ही बार में नहीं बल्कि बारी बारी से करते रहनी चाहिए। सामान्यतः बीज की बुआई से 60 से 75 दिन के बाद फल तोड़ने योग्य हो जाता है। फल के परिपक्व होने के शुरू होने के बाद तुड़ाई का कार्य हर 3 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिए।
हमनें इस आर्टिकल में करेले की खेती से जुड़ी सभी आवश्यक जानकारी को समेटने का प्रयास किया है। अगर कोई किसान करेले की खेती करने के उत्सुक है, तो आशा करते हैं उन्हें इस आर्टिकल में दी गयी जानकारी से लाभ हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि करेला एक बहुउपयोगी सब्जी है, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ किसानों की आय को भी बढ़ाता है। वैज्ञानिक तरीके से खेती करने से न केवल उत्पादन में वृद्धि होती है, बल्कि बाजार में बेहतर कीमत भी मिलती है। विज्ञान एवं प्रद्योगिकी का कृषि क्षेत्र में जितना अधिक उपयोग करेंगे, उतना ही अधिक बेहतर परिणाम प्राप्त कर पाएंगे। देश को खाद्यान्न की आपूर्ति में आत्मनिर्भर बनाने के लिए आज हर फसल की खेती में वैज्ञानिक तरीके अपनाये जाने की जरुरत है। इसी तरह की अन्य जानकारी के साथ हम टॉप आर्टिकल सेक्शन के अगले आर्टिकल में आपसे मुलाकात की आशा करते हैं।